जबतक कोई संयमी नहीं बनेगा, पाप-कर्मों से अपने को नहीं बचावेगा, तबतक उससे ध्यान हो नहीं सकता है।
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पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। हमारा अंतःकरण शुद्ध होना चाहिए।
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सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये करत संलग्न हो।
व्यभिचार, चोरी, नशा, हिंसा, झूठ तजना चाहिये॥
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झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिंसा करनी अर्थात् जीवों को दुःख देना वा मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी इन पाँचों महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिए।
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सत्जन सेवन करत, नित्य सत्संगति करना ।
वचन अमियदे ध्यान, श्रवण करि चित में धरना ॥
मनन करत नहिं बोध होइ, तो पुनि समझीजै ।
अरे हाँ रे 'मेँहीँ' समझि बोध जो होइ,
रहनि ता सम करि लीजै ॥२॥
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एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अंतर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना,सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास इन पाँचों को मोक्ष का कारण समझना चाहिए।
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