मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और सुरत-शब्द-योग द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अंधकार, प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों परदों से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य मात्र अधिकारी है।
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पहले से ही कोई निर्गुण उपासना नहीं करता। पहले स्थूल सगुण रूप उपासना, फि़र सूक्ष्म सगुण रूप उपासना, फि़र सूक्ष्म सगुण अरूप उपासना और अंत में निर्गुण निरकार उपासना। मानस जप और मानस ध्यान स्थूल सगुण रूप उपासना है, विन्दु ध्यान और ज्योति धयान, सूक्ष्म सगुण रूप उपासना है, अनहद नाद का ध्यान रूप रहित होने पर भी सगुण उपासना है और सारशब्द का ध्यान निर्गुण निराकार उपासना है। ( प्रवचन अंश : राजविद्या राजगुह्य का तात्पर्य )
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स्थूल सगुण-साकार की उपासना आरम्भ में लोग करते हैं। ईश्वर का कोई राम में, कोई कृष्ण में, कोई शिव में, कोई शक्ति में मानते हैं। इस तरह कई ईश्वर हो जाते हैं। ईश्वर तो एक ही होना चाहिए। आपस में लोग बहस करते हैं और साम्प्रदायिकता का भाव फ़ैलाते हैं। ईश्वर एक हैं। उनके कई रूप हैं। जैसे एक ही आकाश के घटाकाश, मठाकाश आदि रूप हैं। आकाश एक ही रहता है, चाहे घटाकाश, मठाकाश कितना भी आप कहें। उसी तरह ईश्वर एक ही है। उनके अनेक नाम-रूप हैं। किसी एक रूप से उपासना का आरम्भ किया जाता है। कोई समझे कि स्थूल उपासना से ही उपासना समाप्त हो जाएगी तो वह कम जानता है, इतना कहने में शक नहीं। केवल स्थूल साकार सगुण में ही लगते हो और सूक्ष्म सगुण की उपासना में नहीं बढ़ते हो तो तुम्हारी शक्ति आगे बढ़ेगी कैसे? ऐसा मानने से ही ईश्वर का पूरा दर्शन हो गया, इसको सिद्ध करना चाहिए। सगुण रूप दर्शन करने से विकार दूर नहीं होता। श्रीराम, श्रीकृष्ण, शिवजी, देवी आदि के दर्शन से हृदय शुद्ध नहीं होता। शुम्भ-निशुम्भ ने देवी से युद्ध किया। देवी-दर्शन होने पर भी हृदय शुद्ध क्यों नहीं हुआ? इससे जाना जाता है कि इस स्थूल दर्शन से विचार की शुद्धता नहीं होती, माया में भले ही लाभ हो जाय। ईश्वर-दर्शन इस आँख से नहीं होता। इस आँख से जो देखोगे, वह माया है। ईश्वर को अपने से-चेतन आत्मा से जानोगे। शरीर और इन्द्रियों के साथ अपूर्ण ज्ञान होता है। शरीर-इन्द्रियों से छूटने पर ज्ञान होता है कि ‘पूर्ण में से पूर्ण निकलता है और पूर्ण ही बचता है।’ स्थूल सगुण उपासना के बाद सूक्ष्म सगुण-साकार की उपासना करनी चाहिए। मन से सूक्ष्म सगुण-साकार बनाया नहीं जा सकता। गुरु-युक्ति से इसकी साधाना होती है। आगे चलकर सगुण अरूप की उपासना होती है, यहीं है ऋषि-मुनियों का नादानुसंधाान। फि़र है निर्गुण-निराकार उपासना। स्थूल सगुण से लेकर निर्गुण-निराकार तक इसी तरह पहुँचा जाता है। (189- सगुण-निर्गुण की महिमा)
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जो पुराने सत्संगी हैं वा जो अभी नए सत्संग करते हैं, सबको मालूम है कि ध्यान में बाहरी चीज का अवलम्ब तो केवल नाम मात्र है, जैसे कुछ जप करना और मानस ध्यान करना। लेकिन इस अल्प का भी अनादर नहीं करना चाहिए। जब स्थूल में मन को नहीं लगा सकते हैं तो सूक्ष्म में मन को कैसे लगा सकते हैं? इसलिए मानस जप और मानस ध्यान को भी मुस्तैदी से करना चाहिए। इसके बाद दृष्टियोग और शब्दयोग का साधान है। दृष्टियोग से ज्योति में प्रवेश होता है। फि़र नाद का ध्यान होता है। यही असली नाम-भजन है। बहुत लोगों को धवन्यात्मक नाम-भजन की खबर भी नहीं है। बहुत लोग नहीं जानते कि अंतर का नाद ईश्वर का नाम है। ( प्रवचन अंश : ध्यानाभ्यास में लौ लगाने से तरक्की )
मानस जप और मानस ध्यान से स्थूल में एकाग्रता होती है। जप में भी उत्तम जप वह है, जो जपते हैं, केवल वही ख्याल रहे।
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मानस जप में मुँह से उच्चारण नहीं होता है, मन से ही मंत्रवृत्ति होती रहती है। ( प्रवचन अंश : परम पद से कभी गिरते नहीं )
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जो कोई घोर निद्रा में सोया हुआ होता है, उसे पुकारा जाता है उठाने के लिए। पुकार से नहीं उठने पर शरीर को पकड़कर हिलाते हैं। शब्द कहकर जगाना सूक्ष्म है, देह पकड़कर हिलाना स्थूल है। मानस जप और मानस ध्यान स्थूल साधन हैं। इन दोनों सीढ़ियों पर स्थिर होकर आप अपनी परीक्षा आप करें कि कितनी देर तक उन्हें एकाग्र मन से आप करते हैं? मैं तो कहता हूँ कि दो मिनट भी ऐसा जप करें कि जप है और आप हैं, तो मैं कहूँगा कि बहुत अच्छा करते हैं।
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मानस जप पूरी एकाग्रता के साथ किया जाता है। जप के समय आनेवाले तरह-तरह के चिन्तनों या गुनावनों को हटाकर बारम्बार जप के शब्दों में मन को संलग्न करना पड़ता है। जब मन जप के शब्दों को छोड़कर अन्य गुनावनों में नहीं लगे, तब समझना चाहिए कि जप अच्छी तरह हो रहा है। पहले मन को हठपूर्वक जप के शब्दों में लगाना पड़ता है; परन्तु जब जप का पूरा अभ्यास हो जाता है, तब बिना प्रयास के ही स्वतः मानस जप निरन्तर होता रहता है। यह जप की सिद्धि का लक्षण है। ऐसा होना असंभव नहीं माना जाना चाहिए। जैसे किसी माता को अपने खोये हुए बच्चे की चिन्ता सतत सताती रहती है, वैसे ही जप सिद्ध हो जाने पर वह सदैव बिना प्रयास के ही अनवरत रूप से होता रह सकता है।
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किसी एक ओर मन को लगाना सामान्यतः ध्यान कहलाता है। जप में मन को मंत्र के शब्दों में एकाग्र किया जाता है, इसलिए जप भी एक प्रकार का ध्यान ही है।
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जप सगुण-उपासना की प्रथम सीढ़ी है।
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एक मन से मंत्र जपो। कोई ऐसा कहे मेरा मंत्र अच्छा है, उसका अच्छा नहीं, यह सुनकर भूलिए नहीं। एक मंत्र को जपिए, जिसका अर्थ ईश्वर-संबंधी हो। स्थूल जप जपिए। सब शब्द छूटकर एक शब्द रहेगा। अन्य विषयों को छोड़कर केवल शब्द में लगे रहो। फि़र लोग ध्यान करने बतलाते हैं। (प्रवचन अंश : पंडितों का वेद संतों का भेद)
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जप-वाचिक जप, उपांशु जप और मानस जप ; तीन प्रकार के होते हैं। वाचिक जप बोलकर किया जाता है, उपांशु जप में होठ हिलते हैं, पर दूसरे उसे नहीं सुनते हैं और मानस जप मन-ही-मन होता है। इसमें होेंठ-जीभ आदि नहीं हिलते। अन्तर में प्रवेश करने के लिए पहले मानस जप कीजिए। वैसा नाम जिसका अर्थ ईश्वर संबंधाी है, उस नाम को जपिए, मानस जप के बाद मानस ध्यान कीजिए।
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अंतर की ज्योति ठीक-ठीक ग्रहण करने के लिए पहले जप करें, फि़र ध्यान। जप अन्धकार में करता है, ठहरना भी अन्धकार में है।
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जप की संख्या पुराने की कोई आवश्यकता नहीं है। माला पर एक लाख जप कर लिया, लेकिन एकाग्र मन से कितनी बार? एकाग्रतापूर्वक जितनी बार जप हो, वही श्रेष्ठ है। जप तीन प्रकार के होते हैं-वाचिक, उपांशु और मानस। वाचिक जप वह है, जो कि आवाज के द्वारा जपा जाय। उपांशु जप वह है जो अपने मुँह के अंदर ही बोलकर जपा जाय, इसमें होंठ तो हिले, पर आवाज कोई दूसरा व्यक्ति न सुन सके। मानस जप वह है जो केवल मन-ही-मन किया जाय, जो अपनी कान भी न सुन सके। मानस जप सब जपों का राजा है। मुँह से भी जपो, कोई हानि नहीं, लेकिन जप के प्रकारों में मानस जप सर्वश्रेष्ठ है। इस शरीर में मन कहाँ रहता है? शरीर में मन जहाँ रहता है, उसी स्थान पर उसे रहने देकर, जप करना श्रेष्ठ है। ( प्रवचन अंश : चेतन की धाारा ब्रह्माण्ड से पिण्ड की ओर )
जो मानस जप ठीक से करते हैं, उससे मानस ध्यान भी ठीक-ठीक होता है। मानस ध्यान ऐसा होना चाहिए कि हू-ब-हू देख लिया जाय। परम श्रद्धेय बाबा देवी साहब ने एक दिन मुझसे पूछने की कृपा की, ‘क्या तुम मानस ध्यान में रूप हू-ब-हू निकाल लेते हो?’ मैंने कहा-‘जी नहीं, धुंधला दिखाई देता है।’ इस बात पर बाबा साहब ने कहा-‘मैंने मानस ध्यान किया और हू-ब-हू निकाल लिया है।’ तो इस प्रकार दोनों सीढ़ियों पर मजबूत होने पर विशेष युक्ति-द्वारा बिना दृश्य आधार के दृष्टि स्थिर हो जाती है, तब विन्दु का उदय होता है।
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अपने इष्टदेव का ध्यान करो। कोई गुरु का ध्यान , कोई राम का, कोई कृष्ण का ध्यान करते हैं। आँख बंद करके जप जपना और मानस-ध्यान करना। कोई ॐ का ध्यान करते हैं और कोई अल्लाह लिखकर ध्यान करते हैं। अलीफ़ पर और विशेष सिमटाव होता है, इसका भी ध्यान करते हैं। देखते-देखते सोना के समान, चाँदी के समान चमकता है। पहला अध्याय अंधाकार मंडल में रहकर स्थूल जप, स्थूल ध्यान है। पहला अध्याय थोड़ा है, दूसरा अध्याय बहुत बड़ा है। स्थूल जप में और ध्यान में बहुत रूप और बहुत शब्द छूट जाते हैं। (प्रवचन अंश : पंडितों का वेद संतों का भेद)
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मानस ध्यान (सूक्ष्म )
सुमिरन से मन लाइए, ज्यों सुरभी सुत माहिं ।
कह कबीर चारा चरत, बिसरत कबहूँ नाहिं ।।
यह भी मानस ध्यान है। किंतु दोनों में अंतर है। गाय का बच्चा गाय के अंग-संग नहीं है; किंतु पनिहारी की गगरी उसके अंग-संग मौजूद है, तब उस पर ख्याल रखती है। गौ और गौ के बच्चे की जो मिसाल दी गई है, उससे यह गगरी और पनिहारीवाली उपमा विशेष है। जो चिह्न आपके अंग-संग मौजूद है और साधन करके उसे कभी देख लिया, उसको यदि बराबर नहीं देख सकते हैं तो जिस स्थान पर वह चिह्न है, उस ओर आपका मन लगा रहे, सुरत उधर लगी रहे तो बहुत अच्छा है। दृष्टि-साधन में यदि आपने एक बार भी झलक देख ली और फिर वह नहीं देख पाते हैं तो उस ओर के लिए आपकी सुरत चलती रहेगी, उठी रहेगी, जिस ओर आपने देखा है। उसकी बारंबार याद आपको रखनी चाहिए। यह सूक्ष्म मानस ध्यान है। बाहर में रूप देखकर जो मानस ध्यान करते हैं, वह स्थूल मानस ध्यान है। यदि आप सूक्ष्म मानस ध्यान कर सकते हैं तो स्थूल मानस ध्यान करने की आवश्कता नहीं है।
[महर्षि मेँहीँ सत्संग : 101. सुमिरण से क्या होता है?]
जो दृष्टियोग करता है, वह ईश्वर के इस रूप का धयान करता है। इसका मानस ध्यान नहीं होता। केवल देखो, आप ही उदय होगा। किसी रूप का चिन्तन मत करो। सब आकार-प्रकारों का ख्याल छोड़कर होेश में रहकर देखने के यत्न से देखो, उदय होगा। जब हमारे ख्याल से, सब रंग-रूप छूट जायँ, वचन बोलने की सब बातें चली जायँ, तब परमात्मा बच जाएगा। इसका बहुत अच्छा अभ्यास होना चाहिए। यह छठी भक्ति है। यह हुआ दम। मन-इन्द्रियाें के संग-संग के साधान को दम कहते हैं। ‘शम’ कहते हैं मनोनिग्रह को। ‘शम’ और ‘सम’-दोनों में बड़ा मेल है। ‘शम’ के बिना ‘सम’ (समता) हो नहीं सकता। (प्रवचन अंश : तन काम में मन राम में)
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दृष्टि शरीर का प्राण है। (प्रवचन अंश : अमृत को नत्रें से पान करो)
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आपके दोनों हाथों को पकड़कर कोई खींचे, तो तमाम शरीर उसी ओर खींचा जाएगा। उसी प्रकार दोनों दृष्टि की धाारें जिधार खींची जाएँगी, संपूर्ण शरीर की धाार उस ओर फि़र जाएगी। (प्रवचन अंश : अमृत को नत्रों से पान करो)
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जैसा विन्दु बाहर में स्थापित करते हो, वस्तुतः विन्दु वैसा नहीं होता। इसके लिए संताें ने कहा-आँखें बन्द करते हो, वही कागज के सामने देखने में आता है। अन्धकार-ही-अन्धाकार नजर आता है। पेन्सिल रखो, ख्याल मत करो कि वहाँ क्या होगा? पेन्सिल रखते ही चिõ होता है, उसी प्रकार दृष्टि की नोक जहाँ स्थिर होगी, वहीं कुछ उदित हो जाएगा। इस प्रकार कुछ ख्याल किए बिना दृष्टि को स्थिर करो, अपने ही आप उदित होगा। निराशा देवी की गोद में मत जाओं नाउम्मीदी की गोद में मत बैठो। जो नाउम्मीदी की गोद में बैठते हैं, उनसे होनवाला काम भी नहीं होता है। (प्रवचन अंश : घर माहैं घर निर्मल राखै)
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स्थूल मण्डल में जहाँ तक स्थान है, वहाँ तक लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई और मोटाई होती है। स्थान हो और इन पाँचो में से एक भी नहीं हो, असम्भव है। स्थान में ये पाँचो होते ही हैं। इसलिये लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई और मोटाई जहाँ है, वहाँ स्थान है। विन्दु में स्थान है, किन्तु उसका परिमाण नहीं है। रेखा में लम्बाई है, चौड़ाई नहीं; किन्तु परिभाषा के अनुकूल बाहर में विन्दु या लकीर नहीं बन सकती। दृष्टिसाधान से विन्दु देखने में आता है। जहाँ स्थान है, वहाँ समय है। देश है, समय नहीं और समय है, देश नहीं; ऐसा नहीं हो सकता। जहाँ देश-काल नहीं है, वहाँ लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई और गहराई कुछ नहीं है। परमात्मा देशकालातीत है तथा सर्वव्यापी है। समय और स्थान माया में है, माया से ऊपर समय और स्थान नहीं हो सकते। परमात्मा में लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, गहराई और ऊँचाई मानने से वह माया-रूप हो जायगा। जिसमें विस्तृतत्व या फ़ैलाव नहीं है, वह कैसा है ? बुद्धि में नहीं आ सकता। इसलिये वह बुद्धि के परे है। परमात्मा निर्विकार है। वह विस्तृतत्व-रूप नहीं है। सब फ़ैलावों में रहते हुए वह उन सबसे बचकर है। (प्रवचन अंश : दृष्टिसाधान की महिमा)
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जिसे परम विन्दु कहा गया है, उसे पेन्सिल से नहीं लिख सकते। हाँ, दृष्टि की पेन्सिल से लिख सकते हैं। जहाँ दृष्टि का पसार खतम हो जाएगा, उसकी धारा का जहाँ अटकाव हो जाएगा, वहीं परमात्मा का अणोरणीयाम् रूप उदय हो जाएगा। जबतक यह नहीं होता है, तबतक मन को सँभालने में बड़ी कठिनाई मालूम होती है। दृष्टि सँभालकर रखनी चाहिए, तब ज्योतिर्विन्दु का उदय होगा, ऐसा धयान करो। यह सूक्ष्म रूप-धयान हुआ। इतना ही नहीं, उसके बाद रूपातीत धयान अर्थात् नाद-धयान करना होगा। (प्रवचन अंश : जहाँ रहो, सत्संग करो)
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विन्दु में जो अपने मन को समेटता है, दृष्टि को समेटकर देखता है, तो उसमें शक्ति आ जाती है। फ़ैलाव में शक्ति घटती है, सिमटाव में शक्ति बढ़ती है। जिसकी दृष्टि सिमट गई है, उसकी शक्ति बढ़ जाती है। रूप या दृश्य का बनना बिना विन्दु के नहीं होता। इसलिए सब दृश्य का बीज विन्दु है। किसी आकार और दृश्य का आरम्भ एक विन्दु से होता है और उसका अंत एक विन्दु पर ही होता है। (प्रवचन अंश : आत्मा को जानना सच्चा ज्ञान है)
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दृष्टि वह चीज है, जहाँ पर यह ठीक से लगी रहती है, मन वहीं पर पड़ा रहता है। ऐसा नहीं होगा कि दृष्टि को एक जगह स्थिर किए हैं और मन दूसरी ओर भाग जाय। यदि ठीक-ठीक देखते हैं तो मन वहीं रहता है। दृष्टि डीम-पुतली को नहीं कहते, देखने की शक्ति को कहते हैं। दृष्टि स्थूल है या सूक्ष्म? दृष्टि को हाथ से आप नहीं पकड़ सकते। आप मेरी ओर देखते हैं और मैं आपकी ओर देखता हूँ, तो दोनों की दृष्टि दोनों पर पड़ती है, किन्तु उसे देख नहीं सकते। इस प्रकार दृष्टि सूक्ष्म है और मन भी सूक्ष्म है। सूक्ष्म को सूक्ष्म का सहारा मिलना अवश्य मानने योग्य है। इसलिए दृष्टि से मन का स्थिर होना पूर्ण सम्भव है। दृष्टि और मन दोनों सूक्ष्म है, इसलिए उपनिषद् का यह वाक्य सत्य है, ऐसा विचार में जँचता है। बाकी रही बात वायु-स्थिरता की। तो आप देखिए, किसी गम्भीर बात को सोचिए, तो मन इधार-उधार नहीं भागता। ऐसी अवस्था में श्वास-प्रश्वास की गति भी धाीमी पड़ती है। आप स्वयं आजमाकर देख सकते हैं। (प्रवचन अंश : अमृत को नत्रें से पान करो)
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विचार से देखिए-जहाँ आपकी दृष्टि गड़ी रहेगी, मन वहीं रहेगा। मन सूक्ष्म है और दृष्टि भी सूक्ष्म है। इसलिए स्वजाति को स्वजाति से मदद मिलती है। (प्रवचन अंश : अमृत को नत्रें से पान करो)
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मन को ठीक-ठीक लगाओ, दृष्टि को ठीक-ठीक लगाओ, जैसा बताया गया है। अवश्य शांति मिलेगी। मेरे कहने का तात्पर्य ऐसा नहीं कि प्राणायाम नहीं करो। जिनसे निबहता है, करें( किन्तु खतरे से-आपदा से बचते रहें। बिना प्रत्याहार के धाारणा नहीं होगी। बिना धाारणा के धयान नहीं होगा। इसलिए पहले प्रत्याहार होगा। मन जहाँ जहाँ भागेगा, वहाँ-वहाँ से लौटा-लौटाकर फि़र वही लगाया जाएगा, तो अल्प टिकाव अवश्य होगा। (प्रवचन अंश :अमृत को नत्रें से पान करो)
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फि़र दूसरे अध्याय में जाने से स्थूल रूप और स्थूल शब्द छूट जाता है। किंतु ऐसा नहीं समझिए कि इष्ट छूट गए। इष्टदेव का सूक्ष्म रूप रह गया। इसको मोटी आँख से नहीं, सूक्ष्म आँख से देखेंगे। वहाँ स्थूल कान भी नहीं। जहाँ स्थूल आँख है, वहीं स्थूल कान है। उसी प्रकार जहाँ सूक्ष्म दृष्टि है, वहीं सूक्ष्म श्रवण भी है, तब स्थूल रूप, नाम को नहीं देख सकेंगे। सूक्ष्म दृष्टि और सूक्ष्म श्रवण से सूक्ष्म रूप और सूक्ष्म शब्द को सुनोगे। (प्रवचन अंश : पंडितों का वेद संतों का भेद)
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केवल विचार से दृश्यमण्डल को पार नहीं कर सकता। इसीलिए दृश्यमण्डल से पार होकर जहाँ तक सीमा है, वहाँ तक आप जाइएगा। पहले ज्योति होकर गुजरना होगा, तब अदृश्य में जाइएगा। यह पहला पाठ है कि ज्योति की खोज करो। जो ज्योति की खोज नहीं करता, वह अदृश्य में नहीं जा सकता। अपने अंदर की ज्योति कोई कैसे खोज करे-अंतर में प्रवेशकर या बाहर फ़ैलकर? अंतर्मुखी होने से ही उस प्रकाश को देख सकेंगे। (प्रवचन अंश : शास्त्रें को मथने से क्या फ़ल?)
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आँख बंदकर देखना अमादृष्टि है, आधाी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है। उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिए। प्रतिपदा और पूर्णिमा में आँखाें में कष्ट होता है, किन्तु अमावस्या की दृष्टि में कोई कष्ट नहीं होता। दृष्टि-आँख, डीम और पुतली को नहीं कहते, देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैं। दृष्टि और मन एकओर रखते हैं, तो मस्तिष्क में कुछ परिश्रम मालूम होता है। इसलिए संतों ने कहा-जबतक तुमको भार मालूम नहीं हो, तबतक करो, भार मालूम हो तो छोड़ दो। किसी गम्भीर विषय को सोचने से मस्तिष्क पर बल पड़ता है, मस्तिष्क थका-सा मालूम होता है, तब छोड़ दीजिए। रेचक, पूरक और कुम्भक के लिए कुछ कहा नहीं गया है, केवल दृष्टिसाधान करने को कहा। प्राणायाम करने के लिए नहीं कहा। जो ध्यानाभ्यास करता है, उसको प्राणायाम आप-ही-आप हो जाता है। मन से जब आप चंचल काम करते हैं, तो स्वाँस की गति तीव्र हो जाती है और जब उससे कोई अचंचलता का काम करते हैं, तो स्वास-प्रस्वास की गति धाीमी पड़ जाती है।(प्रवचन अंश : सूक्ष्म मार्ग का अवलम्ब)
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जो जिस मण्डल में रहता है, वह पहले उसी मण्डल का अवलम्ब ले सकता है। इसीलिए दृष्टियोग केे पहले मानस जप और मानस ध्यान की विधि है। (प्रवचन अंश : सूक्ष्म मार्ग का अवलम्ब)
विन्दु के बाद शब्द का-नाद का ध्यान करो। ‘न नाद सदृशो लयः।’ पहले विन्दु का ध्यान करो, फि़र नाद का। इस प्रकार लोग नित्य अभ्यास करते हुए आगे बढ़ सकते हैं। कोई पूछे कि ईश्वर क्या है, तो पूछो कि रूप क्या है? जो इन आँखों से देखा जाय। उसी तरह जो चेतन आत्मा से ग्रहण हो, वह ईश्वर या परमात्मा है। चेतन आत्मा को जड़ का संग छूटे, इसी के लिए दृष्टि-साधान और शब्द-साधान है। दृष्टि-साधान करने की शक्ति प्राप्त करने के लिए मानस जप और मानस ध्यान है। इसके लिए ऐसा नहीं कि काम आज शुरू करो और आज ही खतम। भगवान बु) ने 550 जन्मों में सिि) प्राप्त की थी। भगवान कृष्ण ने भी अनेक जन्मों की बात कही है। यह सुनकर शिथिलता लाने की बात नहीं। धाीरे-धाीरे करते जाओ, एक-न- एक दिन काम अवश्य समाप्त होगा। ( 63- अमृत को नत्रें से पान करो )
विन्दु वह है, जिसका स्थान है, परिमाण नहीं। परिमाण-रहित सूक्ष्मतम पदार्थ को विन्दु कहते हैं। आपकी दृष्टि जहाँ सिमटकर रहेगी, वहीं विन्दु उत्पन्न होता है। जहाँ विन्दु है, वहीं नाद है। ( 130- गुरु गोविन्द सिंह की महानता )
दृश्य जगत का बीज विन्दु है और अदृश्य जगत का बीज शब्द है। जिसकी वृत्ति शब्द-रूप शिव को पकड़ लेती है, वह सारी सृष्टि को अंत कर जाता है। उसे मोक्ष के साथ परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति होे जाती है। (प्रवचन अंश : आत्मा को जानना सच्चा ज्ञान है)
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अगर शब्द छूट जाय तो सब छूट जाता है। शब्द अदृश्य है। दृश्य के अवलंब से दृश्य को पार किया जाता है। जैसे पानी के अवलंब से पानी को पार करता है, ज्योति से ज्योति को पार करता है( उसी प्रकार शब्द को पकड़कर शब्द को पार करता है। (प्रवचन अंश : शास्त्रें को मथने से क्या फ़ल?)
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साधना की पूर्णाहुति